Wednesday 11 September 2013

जैसा अपराध वैसी सजा

आज सुबह सुबह टीवी खोला तो कई न्यूज चैनल वाले लोगों की राय मांग रहे थे ।  आज उस चर्चित केस का फ़ैसला होना जिसको किसी ने निर्भया केस माना तो किसी ने दामिनी  कांड। पर मैं तो उसे सिर्फ़ एक बेचारी, समाज के दुष्ट व्यक्तियों की कुत्सित मानसिकता का शिकार, मानती हूं। मीडिया के तूल पकड़ने और समाज के लोगों की जोर आजमाइश के चलते एक तो पहले ही फ़ांसी लगा चुका है बाकी बचे चार में एक नाबालिग घोषित हो चुका है। पर उसने तो बालिगों को भी शर्मसार कर दिया। लेकिन उसे सजा भी कम तजबीज हुई हुई है। आज उसी का फ़ैसला या उस पर बहस प्रारम्भ होनी है। उस पर भी मीडिया वाले लोगों से राय मांग रहे हैं कि इस केस में क्या फ़ैसला होना चाहिये?

तो लोगों ने और उस लड़की के माता-पिता ने भी कहा कि फ़ांसी से कम कुछ हो ही नहीं सकता। फ़िर मीडिया लोगों से पूछ रही है कि क्या वाकई फ़ांसी देने से बलात्कार की घटनायें कम हों जायेंगी? या सजा देने से इन पर अंकुश लग जायेगा? मीडिया के इस  प्रश्न को पूछने का औचित्य नहीं समझ में आया कि वो सजा की पैरवी करना चाहते हैं या फ़िर माफ़ी की?

अरे भाई अपराध किया है सजा होना लाजिमी है। एक तो हिदुस्तान में अपराध करने की काफ़ी आजादी मिली हुई है, बस व्यक्ति मशहूर नहीं होना चाहिये। सामान्य आदमी कुछ भी कर सकता है। आदमी दबंग होना चाहिये । बस प्रसिद्ध न हो। तो फ़िर यदि वो कोई अपराध करता है तो पहले तो उसका अपराध रजिस्टर होगा ही नहीं अगर कहीं ऊपर जाने से रजिस्टर हो भी गया तो जमानत की सुविधा हासिल है।

फ़िर जमानत पर वो बाहर । फ़िर केस को चलने दो चलता ही रहेगा। फ़िर आती है गवाहों की बारी। जो आफ़कोर्स प्रभावित ही किये जायेंगे क्योंकि उन्हें भी आखिर जिन्दा तो रहना ही है। तो फ़िर गवाही के अभाव में केस दम तोड़ देता है।

जब कानून में हर अपराध की सजा है तो फ़िर इतनी हाय-तोबा की आवश्यकता क्यों पड़ती है? सीधी बात है जैसा केस है उसी धारा में रजिस्टर करो। उसकी जांच करो। अपनी ड्यूटी करो। सजा दो। केस खतम। पर नहीं जिस केस में राजनीति न हो वो बेकार। पुराने जमाने में राजा के जमाने में चोरी करने पर हाथ काट दिये जाते थे। पूरे समाज को पता चल जाता था कि इस व्यक्ति ने चोरी की है। वो आदमी घिसट-घिसट कर अपनी जिन्दगी मौत आने तक तक जीता था। इससे समाज में भय रहता था । अरे जब भय के बिना प्रीति नहीं हो सकती तो समाज में तो  अनुशासन के बिना शासन कैसे रह सकता है? अनुशासन के बिना शासन नहीं रह सकता तो फ़िर सीधी सी एक बात कि जिस व्यक्ति ने  जैसा अपराध किया है उसे उसी प्रकार की सजा भी मिलनी चाहिये। क्योंकि कर्म का फ़ल तो भगवान के यहां से ही स्वीकृत है।

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