आदमी का जीवन जैसे-जैसे खर्च होता जाता है, इतना मंहगा क्यों होता जाता है? हमें बचपन में अपनी जिन्दगी कीइतनी कीमत नहीं मालूम होती जितनी हमारी घरवालों को क्योंकि वही बचपन में अक्सर टोंकते हैं कि ये मत करो इससे चोट लग जायेगी। हमें तमाम तरह की परेशानियों से बचाने के लिये अक्सर काल्पनिक सम्भावी घटनाओं से डराया जाता है- जैसे छिपकली काट लेगी, आग से दूर रहो वर्ना जल जाओगे। कभी-कभी भूतों से भी डराया जाता है पर हम तमाम तरह की हिदायतों के बावजूद बचपन को भरपूर जीते हैं।
फ़िर आती है युवावस्था जिसे देशी भाषा में लोग गर्व से जवानी आना कहते हैं। उस अवस्था में हम अपनी जिन्दगी को अक्सर संभालने की कोशिश करते हैं खासकर अपने चाल-ढाल और अपने शारिरिक बनावट के प्रति जरूर सर्तक रहते हैं क्योंकि कहीं न कहीं अपने आप में दूसरों की टिप्पणियों का असर हम पर ज्यादा पड़ता है। यदि कहीं शारीरिक सुन्दरता में कुछ कमी है तो हम कृत्तिम उपायों से उसे सुधारने का उपक्रम करते हैं। और हां अपनी जिन्दगी को अपनी मनमर्जी से जीने का भरपूर प्रयास करते हैं। उस समय हमारे अपने भी हिदायतें कम देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि मानेंगा है नहीं कोई। इस तरह अपनी जिम्मेदारियों में इंसान के कुछ कीमती साल निकल जाते हैं।
फ़िर आता है बुढ़ापा यानि कि वृद्धावस्था। उस समय इंसान सोचता है कि अब आराम से जीऊंगा क्योंकि इसके पहले सभी अपनी-अपनी जिंदगी में व्यस्त रहते हैं लेकिन तब तक शरीर की सारी ऊर्जा खतम हो जाती है या फ़िर कुछ बीमारियां सहेलियों की तरह घेर लेती हैं फ़िर इंसान की जद्दोजहद शुरु हो जाती है। परेशानियों में इलाज और बीमारियों से लड़ने की बाकी बची-खुची जिंदगी भी धीरे-धीरे घिसटने लगती है। उस समय लगता है कि हमारी अपनी जिंदगी इसे हम अपने तरीके से जीना चाहते हैं उसे जी ही नहीं पाये। मुट्ठी से रेत की तरह फ़िसलती जा रही है जिंदगी। इसी समय लगता है कि हमारा अपने शरीर पर ही अधिकार नहीं रहा जिसे हमने इतने साल भली प्रकार सहेजा और जिस पर बेइंतहा गर्व किया वही गर्व बुढ़ापे में चूर-चूर हो जाता है और हम दूसरों पर आश्रित होकर जिंदगी के दिन गिनते हुये उसके पूरे हो जाने का इंतजार करते हैं। और वो जिंदगी दिन व दिन मंहगाई की तरह बढ़ती जाती है पर उसकी कीमत कम होती जाती है।
और एक दिन वो आता है जब हम मौत का इंतजार करते हुये जिंदगी के बचे-खुचे दिन गिनने लगते हैं। और एक मजे की बात ये है कि अक्सर आदमी ये कहता है कि अगर उसे अपनी मौत का पता हो तो वो सारे छूटे हुये काम कर ले और कोई काम छूटे नहीं और उसे कोई काम छूटे नहीं और उसे अफ़सोस न हो अपनों से अचानक बिछुड़ने का। पर वास्तव में ऐसा कुछ नहीं हो पाता है। ये मानवमात्र का भरम है।
. मेरी मां को अपनी मौत का आभास हो चुका है। इसलिये वो खामोश रहने लगी हैं और हमेशा कुछ न कुछ सोचती रहती हैं और कुछ भी पूछने पर मुस्करा देतीं हैं और कहती हैं-“कुछ नहीं”। पता नहीं वो इतना धैर्य कहां से लाती हैं? मेरा तो धैर्य अब जबाब देने लगा है। मजे की बात ये है कि हम दोनों एक दूसरे को बेवकूफ़ बना रहे हैं। वो मेरे सामने मुस्कराती रहती हैं ताकि मुझे आभास न हो कि वे दुखी हैं। और मैं इसलिये मुस्कराती रहती हूं कि उन्हें ये न मालूम पड़े कि मुझे मालूम जो वो मुझसे छिपाना चाहती हैं।
मेरे हाथ से सब कुछ निकल चुका है। मैं भगवान से भी लड़ने में अपने आपको असमर्थ पा रही हूं क्योंकि अब उससे मांगने में भी देर हो चुकी है। पंडित जी बता रहे थे कि मार्केश लग चुका है जो घातक है। अब कुछ नहीं हो सकता है। रुद्राभिषेक कराने की सलाह दी है। उसी के बारे में सोच रही हूं कि भगवान कोई चमत्कार कर दे। हमेशा मैं मौत की खिल्ली उड़ाती थी, मौत पर लोगों से मजाक किया करती थी। आज मौत मेरी खिल्ली उड़ा रही है। ठीक है समय-समय की बात है। कल मेरा भी वक्त आयेगा तब मैं उसे बताऊंगी।
फ़िर आती है युवावस्था जिसे देशी भाषा में लोग गर्व से जवानी आना कहते हैं। उस अवस्था में हम अपनी जिन्दगी को अक्सर संभालने की कोशिश करते हैं खासकर अपने चाल-ढाल और अपने शारिरिक बनावट के प्रति जरूर सर्तक रहते हैं क्योंकि कहीं न कहीं अपने आप में दूसरों की टिप्पणियों का असर हम पर ज्यादा पड़ता है। यदि कहीं शारीरिक सुन्दरता में कुछ कमी है तो हम कृत्तिम उपायों से उसे सुधारने का उपक्रम करते हैं। और हां अपनी जिन्दगी को अपनी मनमर्जी से जीने का भरपूर प्रयास करते हैं। उस समय हमारे अपने भी हिदायतें कम देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि मानेंगा है नहीं कोई। इस तरह अपनी जिम्मेदारियों में इंसान के कुछ कीमती साल निकल जाते हैं।
फ़िर आता है बुढ़ापा यानि कि वृद्धावस्था। उस समय इंसान सोचता है कि अब आराम से जीऊंगा क्योंकि इसके पहले सभी अपनी-अपनी जिंदगी में व्यस्त रहते हैं लेकिन तब तक शरीर की सारी ऊर्जा खतम हो जाती है या फ़िर कुछ बीमारियां सहेलियों की तरह घेर लेती हैं फ़िर इंसान की जद्दोजहद शुरु हो जाती है। परेशानियों में इलाज और बीमारियों से लड़ने की बाकी बची-खुची जिंदगी भी धीरे-धीरे घिसटने लगती है। उस समय लगता है कि हमारी अपनी जिंदगी इसे हम अपने तरीके से जीना चाहते हैं उसे जी ही नहीं पाये। मुट्ठी से रेत की तरह फ़िसलती जा रही है जिंदगी। इसी समय लगता है कि हमारा अपने शरीर पर ही अधिकार नहीं रहा जिसे हमने इतने साल भली प्रकार सहेजा और जिस पर बेइंतहा गर्व किया वही गर्व बुढ़ापे में चूर-चूर हो जाता है और हम दूसरों पर आश्रित होकर जिंदगी के दिन गिनते हुये उसके पूरे हो जाने का इंतजार करते हैं। और वो जिंदगी दिन व दिन मंहगाई की तरह बढ़ती जाती है पर उसकी कीमत कम होती जाती है।
और एक दिन वो आता है जब हम मौत का इंतजार करते हुये जिंदगी के बचे-खुचे दिन गिनने लगते हैं। और एक मजे की बात ये है कि अक्सर आदमी ये कहता है कि अगर उसे अपनी मौत का पता हो तो वो सारे छूटे हुये काम कर ले और कोई काम छूटे नहीं और उसे कोई काम छूटे नहीं और उसे अफ़सोस न हो अपनों से अचानक बिछुड़ने का। पर वास्तव में ऐसा कुछ नहीं हो पाता है। ये मानवमात्र का भरम है।
. मेरी मां को अपनी मौत का आभास हो चुका है। इसलिये वो खामोश रहने लगी हैं और हमेशा कुछ न कुछ सोचती रहती हैं और कुछ भी पूछने पर मुस्करा देतीं हैं और कहती हैं-“कुछ नहीं”। पता नहीं वो इतना धैर्य कहां से लाती हैं? मेरा तो धैर्य अब जबाब देने लगा है। मजे की बात ये है कि हम दोनों एक दूसरे को बेवकूफ़ बना रहे हैं। वो मेरे सामने मुस्कराती रहती हैं ताकि मुझे आभास न हो कि वे दुखी हैं। और मैं इसलिये मुस्कराती रहती हूं कि उन्हें ये न मालूम पड़े कि मुझे मालूम जो वो मुझसे छिपाना चाहती हैं।
मेरे हाथ से सब कुछ निकल चुका है। मैं भगवान से भी लड़ने में अपने आपको असमर्थ पा रही हूं क्योंकि अब उससे मांगने में भी देर हो चुकी है। पंडित जी बता रहे थे कि मार्केश लग चुका है जो घातक है। अब कुछ नहीं हो सकता है। रुद्राभिषेक कराने की सलाह दी है। उसी के बारे में सोच रही हूं कि भगवान कोई चमत्कार कर दे। हमेशा मैं मौत की खिल्ली उड़ाती थी, मौत पर लोगों से मजाक किया करती थी। आज मौत मेरी खिल्ली उड़ा रही है। ठीक है समय-समय की बात है। कल मेरा भी वक्त आयेगा तब मैं उसे बताऊंगी।