Tuesday 18 September 2012

मंहगी होती जिंदगी

आदमी का जीवन जैसे-जैसे खर्च होता जाता है, इतना मंहगा क्यों होता जाता है? हमें बचपन में अपनी जिन्दगी कीइतनी कीमत नहीं मालूम होती जितनी हमारी घरवालों को क्योंकि वही बचपन में अक्सर टोंकते हैं कि ये मत करो इससे चोट लग जायेगी। हमें तमाम तरह की परेशानियों से बचाने के लिये अक्सर काल्पनिक सम्भावी घटनाओं से डराया जाता है- जैसे छिपकली काट लेगी, आग से दूर रहो वर्ना जल जाओगे। कभी-कभी भूतों से भी डराया जाता है पर हम तमाम तरह की हिदायतों के बावजूद बचपन को भरपूर जीते हैं।

 फ़िर आती है युवावस्था जिसे देशी भाषा में लोग गर्व से जवानी आना कहते हैं। उस अवस्था में हम अपनी जिन्दगी को अक्सर संभालने की कोशिश करते हैं खासकर अपने चाल-ढाल और अपने शारिरिक बनावट के प्रति जरूर सर्तक रहते हैं क्योंकि कहीं न कहीं अपने आप में दूसरों की टिप्पणियों का असर हम पर ज्यादा पड़ता है। यदि कहीं शारीरिक सुन्दरता में कुछ कमी है तो हम कृत्तिम उपायों से उसे सुधारने का उपक्रम करते हैं। और हां अपनी जिन्दगी को अपनी मनमर्जी से जीने का भरपूर प्रयास करते हैं। उस समय हमारे अपने भी हिदायतें कम देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि मानेंगा है नहीं कोई। इस तरह अपनी जिम्मेदारियों में इंसान के कुछ कीमती साल निकल जाते हैं।

 फ़िर आता है बुढ़ापा यानि कि वृद्धावस्था। उस समय इंसान सोचता है कि अब आराम से जीऊंगा क्योंकि इसके पहले सभी अपनी-अपनी जिंदगी में व्यस्त रहते हैं लेकिन तब तक शरीर की सारी ऊर्जा खतम हो जाती है या फ़िर कुछ बीमारियां सहेलियों की तरह घेर लेती हैं फ़िर इंसान की जद्दोजहद शुरु हो जाती है। परेशानियों में इलाज और बीमारियों से लड़ने की बाकी बची-खुची जिंदगी भी धीरे-धीरे घिसटने लगती है। उस समय लगता है कि हमारी अपनी जिंदगी इसे हम अपने तरीके से जीना चाहते हैं उसे जी ही नहीं पाये। मुट्ठी से रेत की तरह फ़िसलती जा रही है जिंदगी। इसी समय लगता है कि हमारा अपने शरीर पर ही अधिकार नहीं रहा जिसे हमने इतने साल भली प्रकार सहेजा और जिस पर बेइंतहा गर्व किया वही गर्व बुढ़ापे में चूर-चूर हो जाता है और हम दूसरों पर आश्रित होकर जिंदगी के दिन गिनते हुये उसके पूरे हो जाने का इंतजार करते हैं। और वो जिंदगी दिन व दिन मंहगाई की तरह बढ़ती जाती है पर उसकी कीमत कम होती जाती है।

और एक दिन वो आता है जब हम मौत का इंतजार करते हुये जिंदगी के बचे-खुचे दिन गिनने लगते हैं। और एक मजे की बात ये है कि अक्सर आदमी ये कहता है कि अगर उसे अपनी मौत का पता हो तो वो सारे छूटे हुये काम कर ले और कोई काम छूटे नहीं और उसे कोई काम छूटे नहीं और उसे अफ़सोस न हो अपनों से अचानक बिछुड़ने का। पर वास्तव में ऐसा कुछ नहीं हो पाता है। ये मानवमात्र का भरम है।

. मेरी मां को अपनी मौत का आभास हो चुका है। इसलिये वो खामोश रहने लगी हैं और हमेशा कुछ न कुछ सोचती रहती हैं और कुछ भी पूछने पर मुस्करा देतीं हैं और कहती हैं-“कुछ नहीं”। पता नहीं वो इतना धैर्य कहां से लाती हैं? मेरा तो धैर्य अब जबाब देने लगा है। मजे की बात ये है कि हम दोनों एक दूसरे को बेवकूफ़ बना रहे हैं। वो मेरे सामने मुस्कराती रहती हैं ताकि मुझे आभास न हो कि वे दुखी हैं। और मैं इसलिये मुस्कराती रहती हूं कि उन्हें ये न मालूम पड़े कि मुझे मालूम जो वो मुझसे छिपाना चाहती हैं।

 मेरे हाथ से सब कुछ निकल चुका है। मैं भगवान से भी लड़ने में अपने आपको असमर्थ पा रही हूं क्योंकि अब उससे मांगने में भी देर हो चुकी है। पंडित जी बता रहे थे कि मार्केश लग चुका है जो घातक है। अब कुछ नहीं हो सकता है। रुद्राभिषेक कराने की सलाह दी है। उसी के बारे में सोच रही हूं कि भगवान कोई चमत्कार कर दे। हमेशा मैं मौत की खिल्ली उड़ाती थी, मौत पर लोगों से मजाक किया करती थी। आज मौत मेरी खिल्ली उड़ा रही है। ठीक है समय-समय की बात है। कल मेरा भी वक्त आयेगा तब मैं उसे बताऊंगी।

Friday 14 September 2012

बीमारी से खतरनाक है उसका इलाज


एक बीमारी जिसका इलाज बीमारी से भी ज्यादा खतरनाक है उसका नाम है- कैंसर। इसके नाम का आतंक ऐसा  है कि जो भी सुनता है वह कुछ भी कहने में अपने को असमर्थ पाता है। मुझे दुर्भाग्यवश इस दैत्य रूपी बीमारी का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि मेरी मां को 75 वर्ष की अवस्था में इस बीमारी ने अपने पंजों में जकड़ लिया। जब इस बीमारी के विशेषणों से  साक्षात्कार हुआ तो इसकी भयंकरता का अंदाजा हुआ। कैसे ये बीमारी तिल-तिलकर इंसान को मारती है और कैसे तिल-तिलकर इंसान को जिंदा रखती है जब तक इसका समय पूरा नहीं होता है।

मेरी मां को गले का कैंसर हुआ और ’लास्ट स्टेज’ बतायी गयी। फ़िर शुरु हुआ जांचों का सिलसिला। उसके बाद बताया गया कि मात्र कीमियोथेरेपी ही इसका एकमात्र इलाज है, वो भी बिना किसी गारण्टी के।  इसके बाद मैंने अपने सामान्य ज्ञान को बदलना शुरु किया। नेट पर सर्च किया और नामुराद कीमियोथेरेपी के बारे में पढ़ना शुरु किया तो पता चला कि बीमारी से ज्यादा खतरनाक इस बीमारी का इलाज है। हे भगवान! इतने सारे साइड इफ़ेक्ट’ कि पढ़कर लगा कि ’साइड इफ़ेक्ट’ तो मुख्य बीमारी से भी ज्यादा खतरनाक है। कैसे इलाज होगा? कौन सा ऐसा साइड इफ़ेक्ट’  है जो नहीं हो सकता है। उल्टी,दस्त,आमाशय में संक्रमण, किडनी में संक्रमण। और हां सबसे पहला बाल झड़ना। और ये बीमारी किसी के साथ भेदभाव नहीं करती है। न स्त्री-पुरुष, न ही उम्र का लिहाज। कहां-कहां ये कैंसर नहीं होता। मतलब हर कहीं हो सकता है।

जिस किसी के भी बाल 2 इंच के दिखायी दिये अस्पताल में तो यही समझ में आया कि बेचारा या बेचारी कीमियोथेरेपी का शिकार है। मतलब ये एक सामान्य लक्षण है कि वो कैंसर का शिकार है और कीमियोथेरेपी करवा चुका है। इस कीमियोथेरेपी के इतने साइड इफ़ेक्ट’ हैं कि यदि बेचारा इन सारे साइड इफ़ेक्ट’ को झेल गया तभी इस बीमारी के पंजों से छूट सकता है वर्ना बीमारी से तो बाद में मरेगा, साइड इफ़ेक्ट से पहले।  यहां तक कि लीवर फ़ट सकता है। किडनी फ़ेल हो सकती है। ब्रेन हैमरेज हो सकता है। लकवा मार सकता है। और हां कोमा में भी जा सकता है। अब आप बताओ कि बीमारी खतरनाक है या इसका  इलाज। उस पर तुर्रा यह कि  डॉक्टर कोई भी पोजीशन भी क्लीयर करने को तैयार नहीं है। यानि कि आप इतने असहाय हो जाते हैं कि आप कुछ कर नहीं सकते सिवाय कि मरीज के साथ आप भी तिल-तिलकर जिया कीजिये क्योंकि आप अपने मरीज से प्यार जो करते हैं।और आप सदैव एक भय से ग्रस्त रहते हैं वो अलग है। 
मैं भी इस समय इसी दौर से गुजर रही हूं। कोई भी कुछ भी गारण्टी से कहने को तैयार नहीं। मेरी मां मुझसे मासूमियत से पूछती रहती है- मैं ठीक तो हो जाउंगी? मैं उन्हें क्या जबाब दूं?  कीमियोथेरेपी का इलाज चल रहा है। मैं हमेशा एक आशंका से ग्रस्त रहती हूं। मां को क्या बताऊं और कैसे बताऊं? उनकी हरकतें बच्चों जैसी मासूम हो गयीं हैं।

Monday 6 August 2012

अनसुलझा अंत

एक विशुद्ध प्रेम कहानी जिसका सुखद अंत हो सकता था, दुखद परिणति को प्राप्त हुई। क्या इसके लिये वाकई वाकई फ़िजा ही जिम्मेदार है? क्या नारियां पुरुषों की इच्छानुसार ही उनके लिये समर्पित होने को बाध्य हैं?  क्या पुरुष सिर्फ़ नारी को अपने अनुसार इस्तेमाल करने के लिये बाध्य है? जब इस्तेमाल करने योग्य न बचें तो उन्हें मरवा दिया जाये। चाहे मधुमिता शुक्ला हो या भंवरी देवी, चाहे गीतिका हो या फ़िजा । ताकत का इस्तेमाल पहले प्रेम पाने के लिये किया जाता था ।

लोग अपनी प्रेयसी को पाने के लिये कुछ भी कर गुजरने के लिये तैयार रहते थे। लेकिन उपभोक्तावाद के इस दौर में नारियों को इस्तेमाल  करके या न कर पाने पर तेजाब डाल दो या फ़िर कब्जे से बाहर जायें तो मरवा दो -जैसा गोपाल कांडा ने किया। एक व्यक्ति जो एक  विशुद्ध प्रेम के लिये अपना घर बार, परिवार, कैरियर यहां तक कि धर्म तक छोड़ देता है वही  व्यक्ति अपनी प्रेयसी को कत्ल तक करवा सकता है।  क्या यही प्रेम का सच्चा प्रतिनिधित्व है?

इस तरह तो नारियां पुरुषों को कभी भी प्रेम नहीं कर पायेंगी? क्या नारियों के प्रेम का यही प्रतिदान है?.किसी भी प्रेम में कोई भी एक दोषी नही होता है लेकिन नुकसान पहुंचाने वाली घटनाओं में अधिकतर में पुरुष ही दोषी पाये जाते हैं।