Monday, 16 September 2013

बदलो अपनी नजरें तो नजारे बदल जायेंगे



आज सुबह की चाय के साथ जब टीवी खोला तो दो खबरों पर मीडिया की कृपा के दर्शन हुये। पहली में तो मोदी जी की रेवाड़ी पहुंचने के कार्यक्रम का सीधा प्रसारण दिखाया जा रहा था। दूसरी खबर थी कि अपने अखिलेश भईया मुजफ़्फ़रनगर जायेंगे दंगा पीडितों से मिलने।

इन दो खबरों पर भी जो खबर भारी थी वो यह थी कि अपनी दामिनी केस में बचाव पक्ष के वकील श्री ए.पी.सिंह जी ने एक गरमागरम बयान दे दिया कि यदि दामिनी की जगह उनकी अपनी बेटी या बहन होती और अगर उसके किसी लड़के के साथ सम्बन्ध होते तो उसे वो अपने फ़ार्म हाउस में पेट्रोल डालकर जिन्दा जला देते।

उनके बयान से ये तो पता चल गया कि ठाकुर साहब के  पास फ़ार्म हाउस है पर  ये नहीं पता कि उनके कोई बेटी या बहन है कि नहीं। अब अगर मान  लिया कि जाये कि उनके बेटी या बहन नहीं है तब तो ठीक है। किस्सा ही खतम। जब है ही नहीं तो जलायेंगे किसे? पर अगर है तो या तो वो अनपढ़ होंगी या फ़िर मारे डर के अपनी प्रतिक्रिया देने मीडिया के सामने आती नहीं होंगी क्योंकि उन्हें पता होगा कि उनके तथाकथित पिताजी/भाईजी मीडिया के जाने के बाद उनके साथ क्या सुलूक करेंगे। बस फ़िर तो चैनल को बैठे-बिठाये एक बढिया, ताजा, गरमागरम , मसालेदार मुद्दा मिल गया जो उनकी टीआरपी बढ़ाने का काम बढिया करेगा, सन्डे स्पेशल मे।. लगभग सभी क्षेत्रों के विशिष्ठ प्रतिनिधि चैनलों ने बुला लिये जिन्होंने अपने-अपने तरीके से गुस्सा जाहिर किया। लेकिन वकील महाशय को कोई फ़र्क नहीं पड़ा। वो किसी की बात सुनने को तैयार नहीं थे और अपने बयान पर अटल थे। तब जो चैनल के प्रस्तोता थे उन्होंने ये बताने की कोशिश की कि वकीन साहन आज तक कोई केस हारे नहीं हैं इसलिये (इस केस में हारने की वजह से) खिसियाकर ऐसी प्रतिक्रिया दी। तो मेरा इस मुद्दे पर ये कहना है कि इन्होंने जानबूझकर हारने वाला केस लिया ही क्यों? कहीं इनका हाल उस व्यक्ति की तरह तो नहीं जो कुछ भी अलग करने के  चक्कर में छत से कूद जाये बिना ये सोचे कि इसमें हाथ-पांव भी टूट सकते हैं।

एक तो चर्चित केस लिया फ़िर हार गये। अच्छा इनमें मीडिया की भी भूमिका उल्लेखनीय है। चूकि यह एक स्पेशल केस था इसलिये इसमें पल पल की खबर का अपडेट किया जा रहा था। वर्ना आजतक मीडिया ने कभी केस हारने वाले वकील से प्रतिक्रिया ली है कभी? पर ये पड़ गये उस वकील के पीछे। शायद इनका पूछने का मतलब ये रहा होगा कि ऐसा केस वकील साहब ने लिया ही क्यों? क्योंकि मीडिया की तो आदत है कुछ न कुछ कुरेदने की। तब शायद वकील साहब ने अपने पक्ष को मजबूत करने के लिये ऐसा ऊलजलूल बयान दे दिया होगा। फ़िर तो चैनल की चांदी हो गयी। और उन्होंने बाकायदा सभा आयोजित की जो एक गरमागरम मसालेदार बहस में परिवर्तित हुई।

वकील साहब ने कहा कि लडकियों को ऐसे संस्कार मिलने चाहिये जिस से ऐसी घटनायें न हों। यहां मैं ये पूछना चाहूंगी कि क्या संस्कारों की खेती केवल लड़कियों के लिये होती है? लड़के खाली फ़सल काटने के लिये हैं? भाई उन्हें भी तो संस्कार मिलने चाहिये। आज लड़कियां इतने प्रतिबन्धों और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद तरक्की कर रही हैं। पूरे परिवार को उनकी स्थिति पता होती है कि वे कहां हैं और क्या कर रही हैं।  पर क्या कभी कोई गारन्टी के साथ यही दावा कर सकता है कि उनका लड़का इस समय कहां है और क्या कर रहा है? कभी कोई लड़कों से क्यों नहीं पूछता कि वो कहां हैं और क्या कर रहे हैं? हम अक्सर लड़कों की गलती तो उनका स्वभाव या समाज द्वारा प्रदत्त आजादी के नाम पर छोड़ क्यों देते हैं? वकील साहब को दामिनी में अश्लीलता नजर आई। उसका कसूर सिर्फ़ इतना था कि वो अपने सहपाठी के साथ मूवी देखकर लौट रही थी तो बस में सवार व्यक्तियों को ये लाइसेंस मिल गया कि वो उसके साथ जैसा चाहे सलूक कर सकते हैं? मैं पूछती हूं कि अगर आप लोग बर्दाश्त नहीं कर सकते तो महिलाओं का समाज की मुख्यधारा में शामिल होना तो फ़िर घर में कैद करके रख दो।  जब बेटी स्कूल या कालेज जायेगी तो लड़कों के साथ पढ़ेगी, हंसेगी, बोलेगी ही। उनके साथ घूमने भी जा सकती हैं। इस बात से वो सबके लिये सर्वसुलभ वस्तु तो नहीं हो जाती। इन्होंने
तो काफ़ी पहले पढ़ा हुआ मुझे याद दिला दिया जब लोग महिलाओं को स्याही से दूर रखते थे यह कहकर कि स्याही देखने से वे अन्धी हो जायेगी और अक्षर लिखने से उनका भाग्य काला हो किसी ने पूछ्ने की जरूरत नहीं समझी कि अक्षर लिखने से पुरुषों का भाग्य काला क्यों नहीं होता?

वकील साहब ने ये भी कहा कि स्त्रियों को ऐसे परिधान पहनने चाहिये जिससे पुरुष उत्तेजित न हों। क्या वकील साहब ये बतायेंगे कि महिलाओं को कौन से ऐसे परिधान पहनने चाहिये जिससे उनके जैसे पुरुष उत्तेजित न हों? यहां ये भी विचारणीय है कि उन बच्चियों के बारे में उनकी क्या राय है जिनकी उमर 4 से लेकर   16 साल तक होती है और वे कौन से परिधान पहनती हैं जिससे कामी पुरुष उत्तेजित होकर बलात्कार कर बैठते हैं?  चैनल पर ये भी मांग आई कि इनकी वकालत की प्रैक्टिस पर बैन लगा देना चाहिये। अगर कहीं ऐसा हो गया तो वकील साहब की तो रोटी के लाले पड़ जायेंगे। हां लेकिन अगर इनके पास फ़ार्म हाउस है तो वक्त पर काम आयेगा। वकील साहब से एक निवेदन है कि अपना पेट्रोल बचा कर रखें जो गाड़ी में भरवाने के काम आयेगा। न कि किसी को जिन्दा जलाने के लिये। इनके परिवार वाले इनसे भय खायेंगे और अपने लिये फ़िर कोई दूसरा वकील ढूंढेंगे जो इनको हरायेगा। नीचे लिखी लाइनें वकील साहब पढें और समझें फ़िर मेरी बात खतम : 

बदलो अपनी नजरें तो नजारे बदल जायेंगे,
बदलो कश्ती तो किनारे बदल जायेंगे।
घिर जो जाओगे खुद के बने तूफ़ानों में,
न संभालेगा कोई और बरबाद हो जाओगे। 



                      

Wednesday, 11 September 2013

जैसा अपराध वैसी सजा

आज सुबह सुबह टीवी खोला तो कई न्यूज चैनल वाले लोगों की राय मांग रहे थे ।  आज उस चर्चित केस का फ़ैसला होना जिसको किसी ने निर्भया केस माना तो किसी ने दामिनी  कांड। पर मैं तो उसे सिर्फ़ एक बेचारी, समाज के दुष्ट व्यक्तियों की कुत्सित मानसिकता का शिकार, मानती हूं। मीडिया के तूल पकड़ने और समाज के लोगों की जोर आजमाइश के चलते एक तो पहले ही फ़ांसी लगा चुका है बाकी बचे चार में एक नाबालिग घोषित हो चुका है। पर उसने तो बालिगों को भी शर्मसार कर दिया। लेकिन उसे सजा भी कम तजबीज हुई हुई है। आज उसी का फ़ैसला या उस पर बहस प्रारम्भ होनी है। उस पर भी मीडिया वाले लोगों से राय मांग रहे हैं कि इस केस में क्या फ़ैसला होना चाहिये?

तो लोगों ने और उस लड़की के माता-पिता ने भी कहा कि फ़ांसी से कम कुछ हो ही नहीं सकता। फ़िर मीडिया लोगों से पूछ रही है कि क्या वाकई फ़ांसी देने से बलात्कार की घटनायें कम हों जायेंगी? या सजा देने से इन पर अंकुश लग जायेगा? मीडिया के इस  प्रश्न को पूछने का औचित्य नहीं समझ में आया कि वो सजा की पैरवी करना चाहते हैं या फ़िर माफ़ी की?

अरे भाई अपराध किया है सजा होना लाजिमी है। एक तो हिदुस्तान में अपराध करने की काफ़ी आजादी मिली हुई है, बस व्यक्ति मशहूर नहीं होना चाहिये। सामान्य आदमी कुछ भी कर सकता है। आदमी दबंग होना चाहिये । बस प्रसिद्ध न हो। तो फ़िर यदि वो कोई अपराध करता है तो पहले तो उसका अपराध रजिस्टर होगा ही नहीं अगर कहीं ऊपर जाने से रजिस्टर हो भी गया तो जमानत की सुविधा हासिल है।

फ़िर जमानत पर वो बाहर । फ़िर केस को चलने दो चलता ही रहेगा। फ़िर आती है गवाहों की बारी। जो आफ़कोर्स प्रभावित ही किये जायेंगे क्योंकि उन्हें भी आखिर जिन्दा तो रहना ही है। तो फ़िर गवाही के अभाव में केस दम तोड़ देता है।

जब कानून में हर अपराध की सजा है तो फ़िर इतनी हाय-तोबा की आवश्यकता क्यों पड़ती है? सीधी बात है जैसा केस है उसी धारा में रजिस्टर करो। उसकी जांच करो। अपनी ड्यूटी करो। सजा दो। केस खतम। पर नहीं जिस केस में राजनीति न हो वो बेकार। पुराने जमाने में राजा के जमाने में चोरी करने पर हाथ काट दिये जाते थे। पूरे समाज को पता चल जाता था कि इस व्यक्ति ने चोरी की है। वो आदमी घिसट-घिसट कर अपनी जिन्दगी मौत आने तक तक जीता था। इससे समाज में भय रहता था । अरे जब भय के बिना प्रीति नहीं हो सकती तो समाज में तो  अनुशासन के बिना शासन कैसे रह सकता है? अनुशासन के बिना शासन नहीं रह सकता तो फ़िर सीधी सी एक बात कि जिस व्यक्ति ने  जैसा अपराध किया है उसे उसी प्रकार की सजा भी मिलनी चाहिये। क्योंकि कर्म का फ़ल तो भगवान के यहां से ही स्वीकृत है।