Monday, 16 September 2013

बदलो अपनी नजरें तो नजारे बदल जायेंगे



आज सुबह की चाय के साथ जब टीवी खोला तो दो खबरों पर मीडिया की कृपा के दर्शन हुये। पहली में तो मोदी जी की रेवाड़ी पहुंचने के कार्यक्रम का सीधा प्रसारण दिखाया जा रहा था। दूसरी खबर थी कि अपने अखिलेश भईया मुजफ़्फ़रनगर जायेंगे दंगा पीडितों से मिलने।

इन दो खबरों पर भी जो खबर भारी थी वो यह थी कि अपनी दामिनी केस में बचाव पक्ष के वकील श्री ए.पी.सिंह जी ने एक गरमागरम बयान दे दिया कि यदि दामिनी की जगह उनकी अपनी बेटी या बहन होती और अगर उसके किसी लड़के के साथ सम्बन्ध होते तो उसे वो अपने फ़ार्म हाउस में पेट्रोल डालकर जिन्दा जला देते।

उनके बयान से ये तो पता चल गया कि ठाकुर साहब के  पास फ़ार्म हाउस है पर  ये नहीं पता कि उनके कोई बेटी या बहन है कि नहीं। अब अगर मान  लिया कि जाये कि उनके बेटी या बहन नहीं है तब तो ठीक है। किस्सा ही खतम। जब है ही नहीं तो जलायेंगे किसे? पर अगर है तो या तो वो अनपढ़ होंगी या फ़िर मारे डर के अपनी प्रतिक्रिया देने मीडिया के सामने आती नहीं होंगी क्योंकि उन्हें पता होगा कि उनके तथाकथित पिताजी/भाईजी मीडिया के जाने के बाद उनके साथ क्या सुलूक करेंगे। बस फ़िर तो चैनल को बैठे-बिठाये एक बढिया, ताजा, गरमागरम , मसालेदार मुद्दा मिल गया जो उनकी टीआरपी बढ़ाने का काम बढिया करेगा, सन्डे स्पेशल मे।. लगभग सभी क्षेत्रों के विशिष्ठ प्रतिनिधि चैनलों ने बुला लिये जिन्होंने अपने-अपने तरीके से गुस्सा जाहिर किया। लेकिन वकील महाशय को कोई फ़र्क नहीं पड़ा। वो किसी की बात सुनने को तैयार नहीं थे और अपने बयान पर अटल थे। तब जो चैनल के प्रस्तोता थे उन्होंने ये बताने की कोशिश की कि वकीन साहन आज तक कोई केस हारे नहीं हैं इसलिये (इस केस में हारने की वजह से) खिसियाकर ऐसी प्रतिक्रिया दी। तो मेरा इस मुद्दे पर ये कहना है कि इन्होंने जानबूझकर हारने वाला केस लिया ही क्यों? कहीं इनका हाल उस व्यक्ति की तरह तो नहीं जो कुछ भी अलग करने के  चक्कर में छत से कूद जाये बिना ये सोचे कि इसमें हाथ-पांव भी टूट सकते हैं।

एक तो चर्चित केस लिया फ़िर हार गये। अच्छा इनमें मीडिया की भी भूमिका उल्लेखनीय है। चूकि यह एक स्पेशल केस था इसलिये इसमें पल पल की खबर का अपडेट किया जा रहा था। वर्ना आजतक मीडिया ने कभी केस हारने वाले वकील से प्रतिक्रिया ली है कभी? पर ये पड़ गये उस वकील के पीछे। शायद इनका पूछने का मतलब ये रहा होगा कि ऐसा केस वकील साहब ने लिया ही क्यों? क्योंकि मीडिया की तो आदत है कुछ न कुछ कुरेदने की। तब शायद वकील साहब ने अपने पक्ष को मजबूत करने के लिये ऐसा ऊलजलूल बयान दे दिया होगा। फ़िर तो चैनल की चांदी हो गयी। और उन्होंने बाकायदा सभा आयोजित की जो एक गरमागरम मसालेदार बहस में परिवर्तित हुई।

वकील साहब ने कहा कि लडकियों को ऐसे संस्कार मिलने चाहिये जिस से ऐसी घटनायें न हों। यहां मैं ये पूछना चाहूंगी कि क्या संस्कारों की खेती केवल लड़कियों के लिये होती है? लड़के खाली फ़सल काटने के लिये हैं? भाई उन्हें भी तो संस्कार मिलने चाहिये। आज लड़कियां इतने प्रतिबन्धों और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद तरक्की कर रही हैं। पूरे परिवार को उनकी स्थिति पता होती है कि वे कहां हैं और क्या कर रही हैं।  पर क्या कभी कोई गारन्टी के साथ यही दावा कर सकता है कि उनका लड़का इस समय कहां है और क्या कर रहा है? कभी कोई लड़कों से क्यों नहीं पूछता कि वो कहां हैं और क्या कर रहे हैं? हम अक्सर लड़कों की गलती तो उनका स्वभाव या समाज द्वारा प्रदत्त आजादी के नाम पर छोड़ क्यों देते हैं? वकील साहब को दामिनी में अश्लीलता नजर आई। उसका कसूर सिर्फ़ इतना था कि वो अपने सहपाठी के साथ मूवी देखकर लौट रही थी तो बस में सवार व्यक्तियों को ये लाइसेंस मिल गया कि वो उसके साथ जैसा चाहे सलूक कर सकते हैं? मैं पूछती हूं कि अगर आप लोग बर्दाश्त नहीं कर सकते तो महिलाओं का समाज की मुख्यधारा में शामिल होना तो फ़िर घर में कैद करके रख दो।  जब बेटी स्कूल या कालेज जायेगी तो लड़कों के साथ पढ़ेगी, हंसेगी, बोलेगी ही। उनके साथ घूमने भी जा सकती हैं। इस बात से वो सबके लिये सर्वसुलभ वस्तु तो नहीं हो जाती। इन्होंने
तो काफ़ी पहले पढ़ा हुआ मुझे याद दिला दिया जब लोग महिलाओं को स्याही से दूर रखते थे यह कहकर कि स्याही देखने से वे अन्धी हो जायेगी और अक्षर लिखने से उनका भाग्य काला हो किसी ने पूछ्ने की जरूरत नहीं समझी कि अक्षर लिखने से पुरुषों का भाग्य काला क्यों नहीं होता?

वकील साहब ने ये भी कहा कि स्त्रियों को ऐसे परिधान पहनने चाहिये जिससे पुरुष उत्तेजित न हों। क्या वकील साहब ये बतायेंगे कि महिलाओं को कौन से ऐसे परिधान पहनने चाहिये जिससे उनके जैसे पुरुष उत्तेजित न हों? यहां ये भी विचारणीय है कि उन बच्चियों के बारे में उनकी क्या राय है जिनकी उमर 4 से लेकर   16 साल तक होती है और वे कौन से परिधान पहनती हैं जिससे कामी पुरुष उत्तेजित होकर बलात्कार कर बैठते हैं?  चैनल पर ये भी मांग आई कि इनकी वकालत की प्रैक्टिस पर बैन लगा देना चाहिये। अगर कहीं ऐसा हो गया तो वकील साहब की तो रोटी के लाले पड़ जायेंगे। हां लेकिन अगर इनके पास फ़ार्म हाउस है तो वक्त पर काम आयेगा। वकील साहब से एक निवेदन है कि अपना पेट्रोल बचा कर रखें जो गाड़ी में भरवाने के काम आयेगा। न कि किसी को जिन्दा जलाने के लिये। इनके परिवार वाले इनसे भय खायेंगे और अपने लिये फ़िर कोई दूसरा वकील ढूंढेंगे जो इनको हरायेगा। नीचे लिखी लाइनें वकील साहब पढें और समझें फ़िर मेरी बात खतम : 

बदलो अपनी नजरें तो नजारे बदल जायेंगे,
बदलो कश्ती तो किनारे बदल जायेंगे।
घिर जो जाओगे खुद के बने तूफ़ानों में,
न संभालेगा कोई और बरबाद हो जाओगे। 



                      

Wednesday, 11 September 2013

जैसा अपराध वैसी सजा

आज सुबह सुबह टीवी खोला तो कई न्यूज चैनल वाले लोगों की राय मांग रहे थे ।  आज उस चर्चित केस का फ़ैसला होना जिसको किसी ने निर्भया केस माना तो किसी ने दामिनी  कांड। पर मैं तो उसे सिर्फ़ एक बेचारी, समाज के दुष्ट व्यक्तियों की कुत्सित मानसिकता का शिकार, मानती हूं। मीडिया के तूल पकड़ने और समाज के लोगों की जोर आजमाइश के चलते एक तो पहले ही फ़ांसी लगा चुका है बाकी बचे चार में एक नाबालिग घोषित हो चुका है। पर उसने तो बालिगों को भी शर्मसार कर दिया। लेकिन उसे सजा भी कम तजबीज हुई हुई है। आज उसी का फ़ैसला या उस पर बहस प्रारम्भ होनी है। उस पर भी मीडिया वाले लोगों से राय मांग रहे हैं कि इस केस में क्या फ़ैसला होना चाहिये?

तो लोगों ने और उस लड़की के माता-पिता ने भी कहा कि फ़ांसी से कम कुछ हो ही नहीं सकता। फ़िर मीडिया लोगों से पूछ रही है कि क्या वाकई फ़ांसी देने से बलात्कार की घटनायें कम हों जायेंगी? या सजा देने से इन पर अंकुश लग जायेगा? मीडिया के इस  प्रश्न को पूछने का औचित्य नहीं समझ में आया कि वो सजा की पैरवी करना चाहते हैं या फ़िर माफ़ी की?

अरे भाई अपराध किया है सजा होना लाजिमी है। एक तो हिदुस्तान में अपराध करने की काफ़ी आजादी मिली हुई है, बस व्यक्ति मशहूर नहीं होना चाहिये। सामान्य आदमी कुछ भी कर सकता है। आदमी दबंग होना चाहिये । बस प्रसिद्ध न हो। तो फ़िर यदि वो कोई अपराध करता है तो पहले तो उसका अपराध रजिस्टर होगा ही नहीं अगर कहीं ऊपर जाने से रजिस्टर हो भी गया तो जमानत की सुविधा हासिल है।

फ़िर जमानत पर वो बाहर । फ़िर केस को चलने दो चलता ही रहेगा। फ़िर आती है गवाहों की बारी। जो आफ़कोर्स प्रभावित ही किये जायेंगे क्योंकि उन्हें भी आखिर जिन्दा तो रहना ही है। तो फ़िर गवाही के अभाव में केस दम तोड़ देता है।

जब कानून में हर अपराध की सजा है तो फ़िर इतनी हाय-तोबा की आवश्यकता क्यों पड़ती है? सीधी बात है जैसा केस है उसी धारा में रजिस्टर करो। उसकी जांच करो। अपनी ड्यूटी करो। सजा दो। केस खतम। पर नहीं जिस केस में राजनीति न हो वो बेकार। पुराने जमाने में राजा के जमाने में चोरी करने पर हाथ काट दिये जाते थे। पूरे समाज को पता चल जाता था कि इस व्यक्ति ने चोरी की है। वो आदमी घिसट-घिसट कर अपनी जिन्दगी मौत आने तक तक जीता था। इससे समाज में भय रहता था । अरे जब भय के बिना प्रीति नहीं हो सकती तो समाज में तो  अनुशासन के बिना शासन कैसे रह सकता है? अनुशासन के बिना शासन नहीं रह सकता तो फ़िर सीधी सी एक बात कि जिस व्यक्ति ने  जैसा अपराध किया है उसे उसी प्रकार की सजा भी मिलनी चाहिये। क्योंकि कर्म का फ़ल तो भगवान के यहां से ही स्वीकृत है।

Wednesday, 6 February 2013

चीरहरण

rape by KHL-VRT Photography.आज समाचारपत्र में एक खबर पढ़ी कि नई दिल्ली में एक लड़की के साथ दुष्कर्म में असफल रहने पर उसके मुख में राड डालकर उसे मारने की असफल कोशिश की गई ! एक और दामिनी जीवन और मौत के संघर्ष में फंसी पड़ी है !

प्रश्न यह है की अगर वह लड़की बच जाती है तो या मर जाती है तो क्या होगा?

क्या फिर से धरना प्रदर्शन या फिर मोमबत्ती से श्रद्धांजलि प्रदान की जायेगी या फिर हमें अपने हक के लिए फिर से कानून से कानून की भीख माँगनी पड़ेगी ! कानून फिर से कानून लागू करने के लिए जाँच के नाम का सहारा लेगा ! और हम फिर से अपनी आत्मा को छलनी होते हुए देखेंगे !

मुझे यह समझ में नहीं आता है की दुष्कर्म एक तात्कालिक मानसिक एवं शारीरिक क्रिया है या यह लोगों के खून में घुल गया है !  क्या इसके बिना एक  पुरुष रह नहीं पा रहा है ! जहाँ एक महिला, एकांत स्थान व उपलब्ध सहज परिस्थितियां देखी नहीं कि जानवर बन जाता है !

इसमें दोष किसका है ? क्या बालक जो आगे चलकर पुरुष बनेगा उसको जन्म देकर तमाम कठिनाईयों को सहकर उसका पालन पोषण करने वाली माँ का या फिर तथाकथित शारीरिक बल का जो उसी माँ की बदौलत मिला है जो प्रारंभिक अवस्था में एक स्त्री ही थी , बहन द्वारा प्यार व सम्मान मिला जिसकी बदौलत वह स्त्री की महिमा को जान पाया !

 एक स्त्री के रूप में पत्नी मिली जिसने अपनी रचनात्मक  अभिव्यक्ति व असीम प्रेम से उसको परिपूर्ण किया उसी स्त्री के विभिन्न रूप को अकेला पाकर अचानक वह इन्सान हैवान कैसे बन जाता है !   उसे क्या लगता है की क्या वह तब रुकेगा जब माँ के रूप में स्त्री उसे जन्म न देकर उसके लिंग का पता लगाकर उसे गर्भ में ही मार डालेगी? क्या करेगी ऐसे शक्स को जन्म देकर जो  उसके ही अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाये !

पहले महिलायें दहेज़ की वजह से स्त्री भ्रूण की गर्भ में ही हत्या करने पर मजबूर थी पर अब शायद आजकल जो घटनाएँ हो रही है उसकी वजह से अब वो दिन दूर नहीं जब वो बालक भ्रूण को गर्भ में ही मारने के लिए मजबूर हो जाएँगी ! क्यूँ बांधेगी बहन अपने उस पुरुष रूपी भाई को राखी जो किसी और की बहन को अपनी हवस का शिकार बनाये और न बना पाने पर उसको तिल-तिल कर मरने के लिए छोड़ दे ! क्यूं कोई पत्नी अपने पति को परमेश्वर का दर्जा  देगी और सात जन्म तक साथ रहने की ईश्वर से प्रार्थना करेगी जब उसे पता है की वो भगवान तो क्या इन्सान भी कहलाने लायक नहीं है !

इसलिए हे तथाकथित रूप से बलवान कहलाने वाले पुरुष रुपी दानवों से में यह कहना चाहती हूँ की स्त्री की मन मर्यादा पर जब-जब आंच आई है तब तब युद्ध हुए है ! इसका इतिहास गवाह है ! चाहे रामायण हो या महाभारत ! इसलिए स्त्री के सब्र का अब इम्तिहान न लिया जाये वर्ना आने वाली प्रलय को कोई रोक नहीं पायेगा !

Tuesday, 18 September 2012

मंहगी होती जिंदगी

आदमी का जीवन जैसे-जैसे खर्च होता जाता है, इतना मंहगा क्यों होता जाता है? हमें बचपन में अपनी जिन्दगी कीइतनी कीमत नहीं मालूम होती जितनी हमारी घरवालों को क्योंकि वही बचपन में अक्सर टोंकते हैं कि ये मत करो इससे चोट लग जायेगी। हमें तमाम तरह की परेशानियों से बचाने के लिये अक्सर काल्पनिक सम्भावी घटनाओं से डराया जाता है- जैसे छिपकली काट लेगी, आग से दूर रहो वर्ना जल जाओगे। कभी-कभी भूतों से भी डराया जाता है पर हम तमाम तरह की हिदायतों के बावजूद बचपन को भरपूर जीते हैं।

 फ़िर आती है युवावस्था जिसे देशी भाषा में लोग गर्व से जवानी आना कहते हैं। उस अवस्था में हम अपनी जिन्दगी को अक्सर संभालने की कोशिश करते हैं खासकर अपने चाल-ढाल और अपने शारिरिक बनावट के प्रति जरूर सर्तक रहते हैं क्योंकि कहीं न कहीं अपने आप में दूसरों की टिप्पणियों का असर हम पर ज्यादा पड़ता है। यदि कहीं शारीरिक सुन्दरता में कुछ कमी है तो हम कृत्तिम उपायों से उसे सुधारने का उपक्रम करते हैं। और हां अपनी जिन्दगी को अपनी मनमर्जी से जीने का भरपूर प्रयास करते हैं। उस समय हमारे अपने भी हिदायतें कम देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि मानेंगा है नहीं कोई। इस तरह अपनी जिम्मेदारियों में इंसान के कुछ कीमती साल निकल जाते हैं।

 फ़िर आता है बुढ़ापा यानि कि वृद्धावस्था। उस समय इंसान सोचता है कि अब आराम से जीऊंगा क्योंकि इसके पहले सभी अपनी-अपनी जिंदगी में व्यस्त रहते हैं लेकिन तब तक शरीर की सारी ऊर्जा खतम हो जाती है या फ़िर कुछ बीमारियां सहेलियों की तरह घेर लेती हैं फ़िर इंसान की जद्दोजहद शुरु हो जाती है। परेशानियों में इलाज और बीमारियों से लड़ने की बाकी बची-खुची जिंदगी भी धीरे-धीरे घिसटने लगती है। उस समय लगता है कि हमारी अपनी जिंदगी इसे हम अपने तरीके से जीना चाहते हैं उसे जी ही नहीं पाये। मुट्ठी से रेत की तरह फ़िसलती जा रही है जिंदगी। इसी समय लगता है कि हमारा अपने शरीर पर ही अधिकार नहीं रहा जिसे हमने इतने साल भली प्रकार सहेजा और जिस पर बेइंतहा गर्व किया वही गर्व बुढ़ापे में चूर-चूर हो जाता है और हम दूसरों पर आश्रित होकर जिंदगी के दिन गिनते हुये उसके पूरे हो जाने का इंतजार करते हैं। और वो जिंदगी दिन व दिन मंहगाई की तरह बढ़ती जाती है पर उसकी कीमत कम होती जाती है।

और एक दिन वो आता है जब हम मौत का इंतजार करते हुये जिंदगी के बचे-खुचे दिन गिनने लगते हैं। और एक मजे की बात ये है कि अक्सर आदमी ये कहता है कि अगर उसे अपनी मौत का पता हो तो वो सारे छूटे हुये काम कर ले और कोई काम छूटे नहीं और उसे कोई काम छूटे नहीं और उसे अफ़सोस न हो अपनों से अचानक बिछुड़ने का। पर वास्तव में ऐसा कुछ नहीं हो पाता है। ये मानवमात्र का भरम है।

. मेरी मां को अपनी मौत का आभास हो चुका है। इसलिये वो खामोश रहने लगी हैं और हमेशा कुछ न कुछ सोचती रहती हैं और कुछ भी पूछने पर मुस्करा देतीं हैं और कहती हैं-“कुछ नहीं”। पता नहीं वो इतना धैर्य कहां से लाती हैं? मेरा तो धैर्य अब जबाब देने लगा है। मजे की बात ये है कि हम दोनों एक दूसरे को बेवकूफ़ बना रहे हैं। वो मेरे सामने मुस्कराती रहती हैं ताकि मुझे आभास न हो कि वे दुखी हैं। और मैं इसलिये मुस्कराती रहती हूं कि उन्हें ये न मालूम पड़े कि मुझे मालूम जो वो मुझसे छिपाना चाहती हैं।

 मेरे हाथ से सब कुछ निकल चुका है। मैं भगवान से भी लड़ने में अपने आपको असमर्थ पा रही हूं क्योंकि अब उससे मांगने में भी देर हो चुकी है। पंडित जी बता रहे थे कि मार्केश लग चुका है जो घातक है। अब कुछ नहीं हो सकता है। रुद्राभिषेक कराने की सलाह दी है। उसी के बारे में सोच रही हूं कि भगवान कोई चमत्कार कर दे। हमेशा मैं मौत की खिल्ली उड़ाती थी, मौत पर लोगों से मजाक किया करती थी। आज मौत मेरी खिल्ली उड़ा रही है। ठीक है समय-समय की बात है। कल मेरा भी वक्त आयेगा तब मैं उसे बताऊंगी।

Friday, 14 September 2012

बीमारी से खतरनाक है उसका इलाज


एक बीमारी जिसका इलाज बीमारी से भी ज्यादा खतरनाक है उसका नाम है- कैंसर। इसके नाम का आतंक ऐसा  है कि जो भी सुनता है वह कुछ भी कहने में अपने को असमर्थ पाता है। मुझे दुर्भाग्यवश इस दैत्य रूपी बीमारी का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि मेरी मां को 75 वर्ष की अवस्था में इस बीमारी ने अपने पंजों में जकड़ लिया। जब इस बीमारी के विशेषणों से  साक्षात्कार हुआ तो इसकी भयंकरता का अंदाजा हुआ। कैसे ये बीमारी तिल-तिलकर इंसान को मारती है और कैसे तिल-तिलकर इंसान को जिंदा रखती है जब तक इसका समय पूरा नहीं होता है।

मेरी मां को गले का कैंसर हुआ और ’लास्ट स्टेज’ बतायी गयी। फ़िर शुरु हुआ जांचों का सिलसिला। उसके बाद बताया गया कि मात्र कीमियोथेरेपी ही इसका एकमात्र इलाज है, वो भी बिना किसी गारण्टी के।  इसके बाद मैंने अपने सामान्य ज्ञान को बदलना शुरु किया। नेट पर सर्च किया और नामुराद कीमियोथेरेपी के बारे में पढ़ना शुरु किया तो पता चला कि बीमारी से ज्यादा खतरनाक इस बीमारी का इलाज है। हे भगवान! इतने सारे साइड इफ़ेक्ट’ कि पढ़कर लगा कि ’साइड इफ़ेक्ट’ तो मुख्य बीमारी से भी ज्यादा खतरनाक है। कैसे इलाज होगा? कौन सा ऐसा साइड इफ़ेक्ट’  है जो नहीं हो सकता है। उल्टी,दस्त,आमाशय में संक्रमण, किडनी में संक्रमण। और हां सबसे पहला बाल झड़ना। और ये बीमारी किसी के साथ भेदभाव नहीं करती है। न स्त्री-पुरुष, न ही उम्र का लिहाज। कहां-कहां ये कैंसर नहीं होता। मतलब हर कहीं हो सकता है।

जिस किसी के भी बाल 2 इंच के दिखायी दिये अस्पताल में तो यही समझ में आया कि बेचारा या बेचारी कीमियोथेरेपी का शिकार है। मतलब ये एक सामान्य लक्षण है कि वो कैंसर का शिकार है और कीमियोथेरेपी करवा चुका है। इस कीमियोथेरेपी के इतने साइड इफ़ेक्ट’ हैं कि यदि बेचारा इन सारे साइड इफ़ेक्ट’ को झेल गया तभी इस बीमारी के पंजों से छूट सकता है वर्ना बीमारी से तो बाद में मरेगा, साइड इफ़ेक्ट से पहले।  यहां तक कि लीवर फ़ट सकता है। किडनी फ़ेल हो सकती है। ब्रेन हैमरेज हो सकता है। लकवा मार सकता है। और हां कोमा में भी जा सकता है। अब आप बताओ कि बीमारी खतरनाक है या इसका  इलाज। उस पर तुर्रा यह कि  डॉक्टर कोई भी पोजीशन भी क्लीयर करने को तैयार नहीं है। यानि कि आप इतने असहाय हो जाते हैं कि आप कुछ कर नहीं सकते सिवाय कि मरीज के साथ आप भी तिल-तिलकर जिया कीजिये क्योंकि आप अपने मरीज से प्यार जो करते हैं।और आप सदैव एक भय से ग्रस्त रहते हैं वो अलग है। 
मैं भी इस समय इसी दौर से गुजर रही हूं। कोई भी कुछ भी गारण्टी से कहने को तैयार नहीं। मेरी मां मुझसे मासूमियत से पूछती रहती है- मैं ठीक तो हो जाउंगी? मैं उन्हें क्या जबाब दूं?  कीमियोथेरेपी का इलाज चल रहा है। मैं हमेशा एक आशंका से ग्रस्त रहती हूं। मां को क्या बताऊं और कैसे बताऊं? उनकी हरकतें बच्चों जैसी मासूम हो गयीं हैं।

Monday, 6 August 2012

अनसुलझा अंत

एक विशुद्ध प्रेम कहानी जिसका सुखद अंत हो सकता था, दुखद परिणति को प्राप्त हुई। क्या इसके लिये वाकई वाकई फ़िजा ही जिम्मेदार है? क्या नारियां पुरुषों की इच्छानुसार ही उनके लिये समर्पित होने को बाध्य हैं?  क्या पुरुष सिर्फ़ नारी को अपने अनुसार इस्तेमाल करने के लिये बाध्य है? जब इस्तेमाल करने योग्य न बचें तो उन्हें मरवा दिया जाये। चाहे मधुमिता शुक्ला हो या भंवरी देवी, चाहे गीतिका हो या फ़िजा । ताकत का इस्तेमाल पहले प्रेम पाने के लिये किया जाता था ।

लोग अपनी प्रेयसी को पाने के लिये कुछ भी कर गुजरने के लिये तैयार रहते थे। लेकिन उपभोक्तावाद के इस दौर में नारियों को इस्तेमाल  करके या न कर पाने पर तेजाब डाल दो या फ़िर कब्जे से बाहर जायें तो मरवा दो -जैसा गोपाल कांडा ने किया। एक व्यक्ति जो एक  विशुद्ध प्रेम के लिये अपना घर बार, परिवार, कैरियर यहां तक कि धर्म तक छोड़ देता है वही  व्यक्ति अपनी प्रेयसी को कत्ल तक करवा सकता है।  क्या यही प्रेम का सच्चा प्रतिनिधित्व है?

इस तरह तो नारियां पुरुषों को कभी भी प्रेम नहीं कर पायेंगी? क्या नारियों के प्रेम का यही प्रतिदान है?.किसी भी प्रेम में कोई भी एक दोषी नही होता है लेकिन नुकसान पहुंचाने वाली घटनाओं में अधिकतर में पुरुष ही दोषी पाये जाते हैं।